Tuesday, September 30, 2008

चीरघर -2

उस शाम करीब चार बजे अचानक घने बादल घिर आए और देखते-देखते घटाटोप हो गया। रिपोर्टिंग के उस दिन के अंतिम पड़ाव यानी चीरघर पहुंचा तो वहां ऊदल नहीं दिखे। उनकी तलाश में चारों ओर निगाह दौड़ाई, लेकिन व्यर्थ। मेरी नजर बरामदे में जमीन पर रखी पांच लाशों पर ठहर गई। उनमें से दो के तो पूरे ही शरीर पर रुई के नमदे लिपटे हुए थे, जो तूफानी हवा के तेज झोंकों में इस तरह उड़-उड़ जा रहे थे जैसे कोई उन्हें खींच रहा हो। इस सारे दृश्य ने मुझे कुछ बेचैन कर दिया, मैंने फिर तेज और लंबी आवाज में ऊदल को पुकारा, लेकिन कोई जवाब नहीं आया। तभी चीरघर के बंद दरवाजे के एक टूटे शीशे से दो तेज-चमकीली आंखें बाहर झांकती हुई दिखाई दीं, लगा जैसे पोस्टमार्टम के लिए लाई गई कोई लाश बाहर निकलने का रास्ता ढूंढ़ रही है। अजीब सी सिहरन पीठ में दौड़ गई। मैं झटके के साथ कई कदम पीछे हट गया, यहां तक कि भीगने की परवाह किए बगैर बरामदे की सीढिय़ों से उतरकर खुले आकाश में आ खड़ा हुआ। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि माजरा क्या है? जब मैंने टूटे शीशे के झरोखे से झांककर देखा था तो हर तिपाई पर लाश लेटी हुई थी, यानी सात लाशें अंदर और पांच बाहर थीं ; मतलब वहां कई सनसनीखेज खबरें मौजूद थीं और मैं इतनी सारी खबरें यूंही छोडक़र जा भी नहीं सकता था। मेरा खबरची कहीं दिख नहीं रहा था। घबराया हुआ मैं इस बीच बारिश से बचने के लिए पीपल के पेड़ तले शरण ले चुका था।
तभी चीरघर का दरवाजा खुला और अंधेरे को चीरता एक शख्स बाहर की ओर आता दिखाई दिया। आदमी है या लाश! मैंने सोचा। बरामदे की सीढिय़ों पर आकर वह रुका और आवाज दी, 'बाबू साब।Ó यह ऊदल की आवाज थी। उनकी पुकार कानों में पड़ते ही मेरी हिम्मत लौटी और मैं उनकं पास आकर खड़ा हो गया। 'थक गया था, एक तिपाई खाली दिखी तो चादर तानकर सो गया, साब। उन्होंने उसी चिरपरिचित अंदाज में सिगरेट मांगी और फिर बताने लगे : ''औरतों के जलने के आज चार केस हैं साब, रामवती 19 साल, सौ फीसदी जली हुई, मथुरा की है; चंदा और गीता दोनों फिरोजाबाद की हैं - उमर 20 और 18, पूरी जली हुई। एक कचहरी घाट की है, कमलेश, वो भी जवान है 23 की और स्टोव फटने से ही जली है।
फिर ऊदल बोले - सब जवान औरतें स्टोव फटने से ही क्यों मरती हैं? यह सवाल दागकर वह तो सिगरेट के गहरे कश लेने लगे, लेकिन मेरा दिमाग ग्रामोफोन की सुई की तरह अटक गया। सब जवान औरतें स्टोव फटने से ही क्यों मरती हैं? ऊदल कश पर कश लिए जा रहे थे ; और अपने काम में लगे हुए थे- ''दो लाशें शमसाबाद से आईं हैं, डाकुओं की गोली लगी है। एक लावारिस है, शिनाख्त नहीं हुई है, और हां, दो फतेहाबाद में फौजदारी में लाठियों की चोटों से मरे हैं। एक साथ इतनी खबरों के मिलने से मैं लाश के उठ खड़े होकर बाहर झांकने के हादसे को तो भूल गया, लेकिन ऊदल का सवाल मेरे सोचने की लय को बार-बार तोडऩे लगा- सब जवान औरतें स्टोव फटने से ही क्यों मरती हैं? (अगले पोस्ट में जारी )

Monday, September 29, 2008

चीरघर

ऊदल ने इस असार संसार से प्रस्थान के कारण को बहुत करीब से जाना है। उन्होंने प्राण पखेरू उड़ जाने की अवश्यम्भावी होतव्यता के लिए जितने भी बहाने कहे-बताए जा सकते हैं, उन सबको घटते हुए देखा है। किसी की इहलीला जल जाने से खत्म हुई या जहर खाने से, वह गोली लगने से मरा या चाकू घोंपने से, मौत की वजह फांसी लगा लेना रहा या गला घोंट देना या पानी में डूब जाना, ऊदल पलक छपकते इन बातों को बारीकी से समझते और शुमार करते रहे हैं। कोई ट्रेन से कट गया, तो कोई ट्रक से कुचल गया, किसी की जान पुलिस की पिटाई ने ले ली ; ऊदल ने नश्वर शरीर को छोडऩे के सभी उपाय और साधन देखे-समझे हैं। लेकिन यह ऊदल को खुद भी नहीं मालूम कि इन 30-32 सालों में उन्होंने कितने लोगों की मोक्ष प्राप्ति में हिस्सा बंटाया!
दौड़ते-धडक़ते शरीरों द्वारा प्राण छोडऩे की वजहों को टटोलते और उन निर्जीव देहों को ठीक से सहेजकर उनके नाते-रिश्तेदारों को सौंपने या खुद उनकी अंतिम क्रिया की जिम्मेदारी निभाते रहने के बावजूद ऊदल ने जज्वात और इंसानियत की डोर को पूरी जिन्दगी बड़ी मजबूती से थामे रखा। मैंने उनके माथे पर कभी भी हताशा या खिसियाहट की शिकन उभरते नहीं देखी। वह जब भी मिलते, पूरी शिद्दत से बात करते और बेहद तहजीब से पेश आते, अलवत्ता होते हमेशा नशे में। उनके गालों की उभरी हुई हड्डियाँ और नुकीली नाक तथा थोड़ी लंबी ठुड्डी और उन पर लाल-लाल आंखें अलग से ही पहचानी जा सकती थीं। रंग उनका पूरी तरह आबनूस से मेल खाता हुआ। कद लगभग 5 फुट 9 इंच। लेकिन ऊदल की सबसे खासियत उनकी आँखें थीं । उनकी लाल-लाल आंखों में एक अजीब सी चमक रहती, और वो हमेशा कुछ बोलती, कहती महसूस होतीं। ऊदल ख़ुद कम ही बोलते थे । जो कहना होता, उसका काफी कुछ तो उनकी आंखें ही कह देतीं। कभी वह हमें चाय पिलाने की इच्छा रखते तो बिना पूछे ही संतराम को स्पेशल चाय का आर्डर दे आते। सिगरेट मांगनी होती तो बस पेंट की जेब की तरफ नजर डालते और हम समझ जाते, वो क्या चाहते हैं। हां, हम लोगों को देखकर उनके निर्मल-शांत मन में एक तरह की खुशी भर जाती। उनमें संता जैसी शुचिता थी, बालसुलभ सरलता थी, जिसका अहसास बराबर होता रहता था । वो औपचारिकता पूरी करने पर भी खास ध्यान नहीं देते, नमस्कार के साथ ही उस दिन चीरघर में आई लाशों की तफसील देना शुरू कर देते।
ऊदल दलित हैं, दलितों में दलित। फिर भी उन्हें इस बात का फक्र है कि वह बड़े सरकारी अस्पताल में काम करते हैं और शहर के नाले के किनारे आधे छप्परवाले एक घरनुमा घेरे में रहते हैं। हम चाहे जो सोचें, ऊदल अपने काम को बेहद जिम्मेदारी का मानते हैं, और उसी शिद्दत के साथ उसे पूरा करते हैं, सच तो यह है कि पोस्टमार्टम का काम वही पूरा करते हैं। शाम को 4 बजे जब डॉक्टर साब आते, तब तक लाशों की संभाल और उनकी जांच-परख का काम वही करते, पोस्टमार्टम के लिए पुलिस वाले जो भी लाश लाते, वह ऊदल के ही हवाले होती। लाशें रखने के लिए वहां पत्थर की सात तिपाइयां थीं। जो भी तिपाई खाली होती, उस पर लाश को बड़े सधे हाथों से लिटाने के साथ ऊदल एक गहरी नजर डाल लेते कि जख्म कहां-कहां हैं। मौत की वजह का भी वह निर्धारण करते जाते। ऊदल ही डाक्टर को बताते- जख्म कितना गहरा है, इसकी पैमाइश वह अपनी नपी-तुली उंगलियों से कर लेते। रिपोर्ट वही तैयार कराते। कई बार थके-मांदे ऊदल तिपाई खाली होने पर कूलर की ठंडी हवा में खुद भी उन्हीं लाशों के बीच सो जाते। उन्हीं ऊदल ने एक शाम मेरी जान सांसत में डाल दी थी। (अगले पोस्ट में जारी )

Tuesday, September 23, 2008

जब अटक गई ट्रेन-2

मैं जानता था, रिक्शा चालक अपनी भरसक ताकत से पेडल घुमा रहा था, इसके बावजूद मैं बार-बार सोच रहा था कि किस तरीके से पेडल को और तेज चलाने में उसकी सहायता कर सकता हूँ? जब मैं कैंट स्टेशन पहुँचा, 5.40 बज चुके थे और प्लेटफोर्म खाली पड़ा था. मैं धक् से रह गया. वहाँ एक दो स्थानों पर फूलों की कुछ पंखुरियां बिखरी पड़ी थीं जो किसी अपने द्वारा किसी अपने के स्वागत की ख़बर दे रही थीं. स्पेशल ट्रेन को यार्ड में भेजा जा चुका था. प्लेटफोर्म ट्रेन जाने के बाद की सुस्ती और ऊंघ के अंदाज़ में लौट आया था.
किसी अंधेरे गड्ढे में गिर जाने जैसी दिमागी हालत महसूस करते हुए वेंडर से मैंने सिगरेट खरीदकर जलाई और स्टेशन मास्टर के पास पहुंचकर कुछ जानकारी हासिल करने की कोशिश की, लेकिन उसकी दुनिया बहुत छोटी थी. उसे इस बात से भी ज्यादा सरोकार नहीं था कि घायल होकर लौटे पैराटूपर्स् ( आगरा में ही देश का अकेला para troopers ट्रेनिंग स्कूल है और 3 दिसम्बर की रात को पाकिस्तान ने आगरा के हवाई अड्डे पर हमले के साथ ही युद्ध की शुरुआत की थी) पाकिस्तान से युद्ध जीतकर आए हैं. दिमाग उलझन, खीज, परेशानी कि हालत में तो था पर अब भी गतिशील था. मुझे किसी तरह इतनी बात कौंध गयी कि छावनी क्षेत्र के सैनिक अस्पताल में जाकर देखना चाहिए. मैं वहाँ पहुँचा. अच्छी खासी गहमागहमी देखकर कुछ आश्वस्त होने लगा. लाउन्ज में एक डॉक्टर से पूछा, पर शायद वो जल्दी में था. रिसेप्शन पर भीड़ थी, कुछ मिनट इन्तजार के बाद एक स्मार्ट युवक मुखातिब हुआ, what you want ? मैंने उसे बताया कि घायल सैनिकों की ख़बर कवर करने आया हूँ, आप किसी तरह कुछ घायल सैनिकों और उनके परिवार के लोगों से मिलवा दें तो मैं अपनी ड्यूटी पूरी कर पाऊंगा. रेसप्सनिस्ट मुझे एक बड़े केबिन में ले गया, बाहर शायद ले. कर्नल की तख्ती लगी थी. काफी सीनियर आर्मी रैंक वाले उस डॉक्टर से मैंने घायल होकर बहादुर सैनिकों के शौर्य का बखान करते हुए कहा कि आम लोग उनके बारे में और बहुत कुछ जानना चाहते हैं. यदि आप अनुमति दे दें तो मैं उनसे बात करके युद्ध के उनके संक्षिप्त अनुभव पेपर में देना चाहता हूँ. शायद वह डॉ. धीर थे, वह उठे और मुझे वार्ड में ले जाकर कुछ कम घायल सैनिकों से ख़ुद मिलवाया. वहाँ कई के बच्चे व पत्नी भी थी. उनका नाम, पति के घायल होने से जुड़ी उनकी फीलिंग, उन सैनिकों के अनुभव का एक विहंगम वर्णंन लेकर मैं लौटा तो सात बज रहे थे. मैंने फ़िर रिक्शे का ही सहारा लिया, पर अब वैसी उतावली या घबराहट नहीं थी. मैंने दफ्तर पंहुचकर इत्मीनान से ख़बर लिखी. ख़बर क्या, वह एक बहुत ही भावपूर्ण ढंग से लिखा गया शब्दचित्र था. दो-तीन ज्यादा घायल सैनिकों से आपबीती के बारे में छोटी-छोटी बातचीत भी थी. उसमें स्टेशन पर घायल वायुसैनिकों से पत्नी और बच्चों के भावुक मिलन को वर्णित करने के लिए गढा हुआ एक छोटा सा बॉक्स भी था. समाचार लिखकर संपादक को देने के बाद मैंने राहत की साँस ली. दूसरे दिन के अख़बार में उस ख़बर ने byline के साथ टॉप बॉक्स के रूप में जगह ले रखी थी. पहली ख़बर, पहली byline , पहला पेज. अगले दिन दफ्तर पहुँचा तो संपादक सहित मेरे विभाग के सीनिअर्स और साथियों ने इतनी ''तथ्यपरक, मार्मिक और मुकम्मिल'' ख़बर के लिए पीठ ठोंकी. मेरे पास खुशी का कारन तो था, पर समय पर स्टेशन न पहुँच पाने का मलाल भी था. बहरहाल, मेरा काम तीन-चार दिन बाद ही बदल दिया गया था. मुझे अब रिपोर्टिंग का काम दे दिया गया था.

Monday, September 22, 2008

जब अटक गई ट्रेन

बात 1971 के दिसम्बर महीने के तीसरे सप्ताह की है। सितम्बर महीने में श्री ओमप्रकाश लवानिया के साथ मैंने दैनिक सैनिक छोड़कर अमर उजाला ज्वाइन किया था। यह वह समय था जब पूर्वी पाकिस्तान में शेख मुजीबुर्रहमान की मुक्तिवाहिनी के नेतृत्व में पश्चिमी पाकिस्तान के विरूद्ध सशस्त्र विद्रोह चल रहा था। अमर उजाला में मेरे काम की शुरुआत क़स्बों और गाँवों की खबरों के संपादन आदि से हुई थी।
घटना वाली शाम करीब 4 बजे डोरीलाल जी ने मुझे बुलाकर एक प्रेस रिलीज़ थमाई, जो वायु सेना की ओर से थी। उसमें सूचना थी कि शाम को 5 बजे एक स्पेशल ट्रेन घायल पैराटू्पर्स को लेकर आगरा कैंट स्टेशन पहुंचेगी। संपादक का निर्देश था कि फोटोग्राफर (श्री सत्य नारायण - अपने काम के प्रति एक गंभीर और समर्पित व्यक्ति ) को भी यह सूचना दे दूँ और स्टोरी को कवर करूँ। स्टेशन जाने-आने के लिए किराया मैनेजर कम कैशिअर कम सर्कुलेशन इंचार्ज से लेना था। लेकिन उन्होंने मुझे समझदारी और सयानेपन का परिचय देते हुए 4।20 बजे पास के ही स्टेशन से गुजरने वाली शटल ट्रेन से कैंट स्टेशन जाने की सलाह थमा दी। ये मेरा पहला असाइनमेंट था. मैं उस समय बिना कुछ सोचे इस सलाह को शिरोधार्य कर तुंरत स्टेशन की टिकट खिड़की पर 25 पैसे का टिकट लेकर ट्रेन में जा बैठा। ट्रेन रवाना हुई और अगले स्टेशन यानी राजा की मण्डी पर पहुंचकर रुक गई। लगभग 20 मिनट बीत गए तो मेरी परेशानी बदी। मैं गार्ड के डिब्बे की ओर लपका, वो सज्जन अपने डिब्बे के सामने बड़ी तसल्ली से खड़े कुल्लड़ में चाय सुड़क रहे थे। उनके फुरसती अंदाज़ से चिंता और बढ़ी। पास पहुँच कर पूछा - ट्रेन कब चलेगी ? गार्ड साब ने उसी बेफिक्री से जवाब दिया, केंट स्टेशन पर एक स्पेशल आने वाली है, जब वो आकर चली जायेगी, तब ये पैसेंजेर यहाँ से रवाना होगी। उस स्पेशल का मतलब तुंरत मेरी समझ में आ गया। मुझे लगा कि इम्तहान दिए बिना ही मैं परीक्षा में फेल हो गया हूँ। पल भर में ही मैंने जैसे भी हो, कैंट स्टेशन पहुँचने का फैसला किया और वहाँ से पटरियों को फलांगते हुए सरपट भागा। बिना किराया पूछे एक साइकिल रिक्शे में बैठ गया। उससे कहा, जितनी जल्दी हो सके कैंट स्टेशन ले चलो। ये दूरी सात किलोमीटर की थी। उस दिन जैसी लाचारी और खिसियाहट पूरे जीवन में शायद एक दो ही मौकों पर और महसूस की होगी।
(अगली पोस्ट में जारी)

Thursday, September 18, 2008

झंडे ने लहराया परचम

ये बात शायद 1972 के करीब की है. फोन तब कम ही थे, खबरों की तलाश के लिए काफी मशक्कत करनी होती थी. कलेक्ट्रट, जहाँ जिला प्रशासन के सभी दफ्तर थे, एसएसपी ऑफिस, मोर्चरी और इमर्जेंसी वार्ड जरुर जाना होता था. मेरे रोज़ के साथी दैनिक सैनिक के रिपोर्टर श्री रमाशंकर शर्मा और मैं उस दिन शहर के सभी उन ठिकानों की फेरी लगा चुके थे, जहाँ से खबरें generate होने की सम्भावना रहती थी. लेकिन कोई भी दिलचस्प ख़बर हाथ नहीं लग सकी थी. हम दोनों सिगरेट पीते हुए अपने-अपने दफ्तर के लिए लौट रहे थे. आगरा कालेज रास्ते में पड़ता था. हम दोनों वहाँ पान खाने के लिए रुक कर छात्रों से गप करने लगे. तभी एक लड़के ने बातचीत के दौरान बीकेडी का झंडा जलाने का जिक्र किया. उसने इस बात को कुछ ऐसे अंदाज़ में बताया था कि उसको हँसी मजाक के रूप में ही लिया जा सकता था. उसके अनुसार '' आज चार-पाँच लड़कों ने बीकेडी के झंडे को फूंक दिया.'' असल में वह चौधरी चरण सिंह का जमाना था. उन्होंने कुछ ही दिन पहले कांग्रेस छोड़कर बीकेडी (भारतीय क्रांति दल ) नाम से नई पार्टी बना ली थी और यूपी के मुख्यमंत्री भी बन गए थे. चौधरी साब ने कुर्सी पर बैठते ही सबसे पहला काम पूरे प्रांत में छात्र संघों को भंग करने का किया था. इस फैसले के विरोध में जगह-जगह आन्दोलन हो रहे थे, सबसे ज्यादा हंगामा पूर्वी उत्तरप्रदेश में किया जा रहा था.
उस दिन खाली हाथ लौटने के मलाल के साथ दफ्तर पहुँचा. चाय-सिगरेट मंगवाई. तभी विचार कौंधा, झंडे वाली ख़बर को ही क्यों न develop किया जाए और वह उस दिन की लीड बन गयी. उस ख़बर ने ऐसा समाँ बाँधा कि
अगले दिन से आगरा में सभी डिग्री कालेज बंद हो गए और छात्र सडकों पर उतर आए और जबरदस्त विरोध पनपते देख कर सिर्फ तीन दिन बाद चौधरी साब को छात्र संघों को भंग करने का आदेश भंग कर देना पड़ा. हाँ मेरे मित्र ने जरुर इस बात का थोड़ा बुरा माना, पर इसमें मेरी गलती कहाँ थी

Wednesday, September 17, 2008

नहीं भूलती इमरजेंसी की वह रात

इमरजेंसी लगी हुई थी. प्रेस सेंसरशिप भी लागू थी . रात का करीब एक बजा था. अखबार छ्पना शुरू हो चुका था, पहली लीड सिर्फ़ तीन कॉलम के हेडिंग के साथ छपी हुई थी - सुरक्षा बलों में अनुशासनहीनता बर्दाश्त नहीं होगी : इंदिरा गधी.

ओमप्रकाश लवानिया रात में थे. तब तक शायद वह 6-7 पैग चढ़ा चुके होंगे. लेकिन हमेशा की तरह थे एकदम अलर्ट. फोरमेन ओंकारनाथ ने लवानियाजी को अख़बार की शुरुआती प्रतियाँ लाकर दिखाई. रोको मशीन रोको, ओंकारनाथ काम निपटा चुकने के बाद घर जाने के मूड में थे और उनको दिनभर सम्पादकीय विभाग के त्रुटी निवारण के निर्देशों का पालन करते-करते झुंझलाहट भी आ चुकी होती थी. इस बीच मशीनमेन पूरी स्पीड पर मशीन को ला चुका था.

हड़बड़ी में लवानिया जी ख़ुद ही सीढियों की ओर भागे और गिर पड़े. गिरने की आवाज सुनकर मैं सीढियों की ओर दौड़ा और उन्हें उठाया. लवानिया जी ने जैसे-तैसे मुझे मामले की गंभीरता का एहसास कराया. मैं नीचे मशीन रूम में पंहुचा तो वहां मशीनमेन की जगह उनका हेल्पर मौजूद था. सब इंतजाम ठीकठाक मानकर मशीनमेन साहब खाने (या पीने ? ) गए हुए थे. मैंने हेल्पर को उस शोर में अपनी बात समझाने की कोशिश की तो उसका जवाब था– वैसे तो सब लोग समझ लेंगे कि गधी का मतलब गांधी से ही है, लेकिन आप लोगों को हर बात में मीनमेख निकालनी होती है. अब या तो पीटर (मशीनमैन) के आने तक रुको या फ़िर लवानिया जी से कहलवाओ.

मैं फ़िर दौड़ता ऊपर गया तो 40 किलो के लवानिया जी अभी तक जीने के बीच चांदे पर ही थे, हाँ उन्होंने दीवार का सहारा ले लिया था. दांये घुटने से खून बह रहा था और बायीं पिंडली की मात्र त्वचा से ढकी हुई हड्डी में चोट के कारण काफी तकलीफ थी. मैंने कुछ कहे बिना लवानिया जी को गोद में उठाया और मशीनरूम में पेश कर दिया. उनकी जबरदस्त फटकार के बाद मशीन रोकी गयी, शायद तब तक 7 हज़ार अखबार छप चुका था जिसे रद्दी किया गया और सुधार करके करीब 40 मिनट के बाद दोबारा छपाई शुरू हुई.

प्रिंटिंग मशीन का हेल्पर नहीं जानता था कि इमरजेंसी कि घोषणा होने पर अखबार का सम्पादकीय कालम खाली छोड़ने की बड़ी सख्त प्रतिक्रिया हुई थी. कांग्रेस के प्रमुख नेताओं का एक गुट दिल्ली में सत्ता की धुरी तक संदेश भेज रहा था कि ऐसे संपादक को गिरफ्तार करने का यह सुनहरा अवसर है. 26 जून को ही कलेक्टर ने संपादक को बुलाकर चेतावनी दे दी थी कि भविष्य में "सरकार के विरोध का कोई भी काम न किया जाए, अन्यथा प्रशासन उचित निर्णय लेने के लिए मजबूर होगा". घटना की शिकायत किसी ने नहीं की थी, लेकिन बात छिप भी नहीं सकती थी. संपादक की जानकारी में आने पर अगले दिन प्रूफ़ रीडर की गर्दन नप गयी. पता ये चला कि जनाब के साले साब मिलने आए थे और उनके साथ उस रात कुछ ज्यादा ही चढा ली थी.