Monday, November 3, 2008

संजय गाँधी की सभा

जिन लोगों को उन दिनों की याद है, वे भूले नहीं होंगे कि उस समय संजय गांधी को 'युवा हृदय सम्राट' के विशेषण से पुकारा जाता था। हम लोगों को उनकी सभा की खबर मिली तो हैरानी और परेशानी का भाव आया। इंदिरा गांधी के मौजूद रहते संजय गांधी की सभा? क्या वह कोई खास घोषणा करने वाले हैं? क्या कहेंगे, आज के हालात पर बोलेंगे, इमरजेंसी पर चर्चा करेंगे? सभा के लिए 4या 4.30 बजे का समय निर्धारित था। भरतपुर के कुछ पत्रकारों के साथ मैं भी सभास्थल पर पहुंच गया। भरतपुर से बाहर का कोई भी पत्रकार इस पूरे दौरे में दिखाई नहीं दिया था। हमारे वहां पहुंचने के समय मुश्किल से 50-60 लोग सडक़ पर बिछी दरियों पर बैठे थे। सभा में शामिल होने वालों की संख्या बेहद धीरे-धीरे बढ़ रही थी। थोड़ी देर में ही राष्ट्रीय ध्वज लगी तीन-चार कारें वहां आ पहुंचीं। मैं अपनी आदत के अनुसार स्टेज के पीछे ही मौजुद था। स्टेज बहुत ही छोटा था और शायद काफी जल्दवाजी में बनाया गया था। 'युवा हृदय सम्राट' पधार चुके थे और उनके साथ थे राजस्थान के मुख्यमंत्री हरिदेव जोशी और यूपी के मुख्यमंत्री नारायणदत्त तिवारी तथा एक-दो केंद्रीय नेता व प्रोटोकोल निभाने वाले अधिकारी। स्टेज छोटा था और उस पर चढऩे के लिए कोई भी उचित व्यवस्था नहीं की गई थी। पूरी स्टेज का साइज ज्यादा से ज्यादा 6 गुना 6 फीट रहा होगा ; स्टेज एक पेड़ के साथ बनाया गया था यानी उस करीब छह या सात फीट ऊंचे मचान पर पहुंचने के लिए पेड़ का ही सहारा लिया जा सकता था। लेकिन उस पर चढऩे की कोशिश करने पर खुरसट आने या फिसल जाने का डर था। इसके आगे का दृश्य बड़ा अजीब था। एक मुख्यमंत्री ने 'युवा हृदय सम्राट' की चप्पलें हाथ में लेकर करीने से रखीं, दूसरे मुख्यमंत्री ने 'पुरुषार्थ' दिखाते हुए उन्हें चढऩे के लिए अपना कंधा पेश किया, फिर जो मुख्यमंत्री स्टेज के ऊपर खड़े थे, उन्होंने उनका पूरा वजन संभालते हुए उनको खींचा। इसके बाद क्या हुआ?
'युवा हृदय सम्राट' बोले - ''भाइयों, आपके भरतपुर में बड़ी प्यारी-प्यारी चिडिय़ां आती हैं, वो दूसरे देशों से भी आती हैं, हम आज उन्हीं को देखने यहां आए थे। पक्षी बहुत प्यारे होते हैं। आप उनका ख्याल रखियेगा, हम फिर आऐंगे। हम भरतपुर के लिए भी कुछ करने का विचार करेंगे। धन्यवाद, जयहिंद!
जहां तक मुझे याद है, यह खबर 'संजय गांधी की सभा' शीर्षक से छपी थी। पेज एक पर यह दो छोटे पैराग्राफ की खबर थी, लेकिन इसमें मुख्यमंत्रियों की भूमिका का कोई जिक्र नहीं था। उस समय हो सकता भी नहीं था। बाद में मैंने पत्रकारिता की अपनी एक पुस्तक की भूमिका में इस घटना का उल्लेख करना चाहा, पर प्रकाशक ने अनुमति नहीं दी।
सभा के बाद यह समझ पाने में देर नहीं लगी कि यह आयोजन कांग्रेस के उन चाटुकारों की कोशिशों का नतीजा था जिन्होंने श्री संजय गांधी को 'युवा हृदय सम्राट' आदि विशेषणों से अलंकृत किया था। इसके बाद संजय गांधी से मेरी आखिरी मुलाकात नई दिल्ली की 12, विलिंगडन क्रिसेंट स्थित श्रीमती इंदिरा गांधी के निवास के रूप में प्रयुक्त हो रही छोटी सी कोठी में हुई। ये बात 23 दिसंबर, 1979 की है। मैं श्रीमती गांधी का इंटरव्यू लेने गया था और उनके वुलाबे के इंतजार में था कि पता नहीं किधर से संजय गांधी दो ऊंचे कद के बड़े बलवान कुत्तों के साथ आए और वहां मौजूद एक हट्टक ट्टे पहलवान से आदमी से मेरे बारे में कुछ दरियाफ्त किया। यह पता चलने पर कि मैं आगरा से हूं और मैडम का इंटरव्यू लेने के लिए आया हंू, वह नजदीक आकर पूछने लगे, अच्छा आगरा से आप? बताइए, वहां हमारी युवक कांग्रेस कैसी चल रही है? मैंने उस समय सक्रिय दो युवक कांग्रेसियों के नाम उनको बताए जो तब सचमुच काफी मेहनत से संगठन के काम में लगे हुए थे। दोनों को अगले चुनाव में टिकट भी मिला, लेकिन पार्टी में कद बढ़ते ही दूसरे नेताओं की तरह ही उन्होंने भी मठ बना लिए। अब राजनीति में उनका सूर्य अस्त हो चुका है, पर कारोबारी वे बन चुके हैं। बहुत थोड़े दिन बाद ही दिल्ली में जहाज उड़ाते हुए एक हादसे में वे काल कवलित हो गये। श्री खुशवंत सिंह ने ठीक ही लिखा था—छोटे भाई ने राजनीति करते हुए जहाज उड़ाने की कोशिश की और अकाल मृत्यु का शिकार बन गया; जबकि बड़े भाई ने पायलट होते हुए राजनीति करने की कोशिश की और मृत्यु ने उसको निगल लिया। (समाप्त)

Saturday, October 25, 2008

आगरा और संजय गाँधी-2

श्री गांधी चाहते थे कि दिल्ली से आगरा तक का मार्ग सैलानियों के लिहाज से विकसित किया जाए। उन्हीं के सोच से फरीदाबाद में मेगपाई और बल्लभगढ़ से आगे डेवचिक जैसे मोटेल बनाए गए। उनकी इच्छा थी कि सैलानी दिल्ली से सडक़ के रास्ते करीब दो घंटे में आगरा पहुंच सके और शाम होते-होते दिल्ली वापस पहुंच जाए। संजय गांधी ने इसी तर्ज पर दिल्ली में भी कुछ कठोर फैसले लिए थे जिन्हें क्रियान्वित करने में आज के भाजपा सांसद और तब के ले. गवर्नर जगमोहन को भारी आलोचना और विवादों का सामना करना पड़ा था। मेरे विचार से संजय गांधी को दो बातों ने बहुत नुकसान पहुंचाया- एक, चापलूसों का जमावड़ा और दूसरा, मीडिया से दूरी; अन्यथा कौन कह सकता है कि देश के लिए लगातार बेहिसाब बढ़ती आबादी समस्या नहीं बन रही है या शहरों के जनजीवन को अतिक्रमण अथवा एन्क्रोचमेंट ने एकदम पंगु नहीं बना दिया है। बहरहाल, यहां श्री गांधी से संबंधित एक बेहद रोचक किन्तु सत्य संस्मरण ब्लॉगप्रेमियों के लिए दिलचस्प होने के साथ-साथ उनकी सीमाओं पर भी रोशनी डालने में समर्थ है। ये बात जनवरी, 1976 की है। श्रीमती इंदिरा गांधी आपात्ïकाल की घोषणा के बाद पहली बार अपने पूरे परिवार के साथ दिल्ली से बाहर निकली थीं। पहले यह परिवार डीग (भरतपुर) के जलमहल देखने पहुंचा। सर्दी काफी थी। डीग के राजा द्वारा जलमहल का निर्माण बड़े ही खूबसूरत अंदाज में कराया गया है। जलमहल एक विशाल बगीचे में स्थित में है। विशिष्टï अतिथि संगमरमर से बने सरोवर के चारों ओर बैठते हैं और उसके एक मंजिल ऊपर एक ऐसे हौद का निर्माण किया गया है जिसमें चारों ओर ऐसे बड़े-बड़े मोखले बने हुए हैं जिनमें कपड़े में बांधकर रंग की पोटलियां रख दी जाती हैं। खास मेहमानों के जमा हो जाने के बाद ऊपर की मंजिल पर हौद के पानी को बहने के लिए खोल दिया जाता है। जब यह पानी तरह-तरह के रंगों के साथ गिरता है तो बेहद खूबसूरत लगता है। करीब दो घंटे तक रुकने के बाद गांधी परिवार यहां से भरतपुर के लिए रवाना हुआ और रात करीब 7.30 बजे केवलादेव घना (भरतपुर के पक्षी अभयारण्य) के गेस्ट हाउस विश्राम के लिए पहुंचा। अगले दिन श्रीमती गांधी सुबह पौने छह बजे ही पक्षी विशेषज्ञ श्री सालिम अली को लेकर पक्षियों को निहारने निकल पड़ीं। लगभग सवा सात बजे वह लौटीं और पुन: करीब आठ बजे परिवार के बाकी सदस्यों को लेकर विदेशी परिन्दों को देखने निकल गईं। गांधी परिवार का यह दौरा नितांत निजी था। मैं हॉटिकल्चर के एक कर्मचारी के रूप में इस दौरे में शमिल हो पाया था। लेकिन घना पक्षी विहार में आईबी के गुप्तचरों ने ताड़ लिया कि मैं हॉटिकल्चर का नहीं, कोई अन्य व्यक्ति हूं। उन्होंने घेरे में ले लिया। लगभग तीन घंटे उसी तरह रखा। जांच-पड़ताल से मेरी असलियत का पता चला तो श्रीमती गांधी परिवार के लौट आने के बाद मुझे मुक्त भी कर दिया और जाने दिया। यह ऐसा निजी दौरा था जिसमें कोई भी रिपोर्टर वीआईपी परिवार के साथ नहीं था। पहले दिन की खबर मैंने श्री हरद्वारी लाल शर्मा (भरतपुर के संवाददाता) के हाथों रात को ही भेज दी थी और उसे पहले पेज पर काफी प्रमुखता के साथ छापा गया था। पक्षियों के अवलोकन की खबर के लिए श्री सालिम अली से बात करनी पड़ी और राजस्थान सूचना विभाग के अधिकारी श्री हर्षवर्धन ने इसमें विशेष सहयोग दिया। हम लोग सर्किट हाउस में ठहरे थे। दोपहर करीब तीन बजे किसी सूत्र से मालूम हुआ कि शाम को संजय गांधी की भरतपुर शहर में सभा है। (जारी)

Friday, October 24, 2008

आगरा के उद्घारकर्ता
आज का यह संस्मरण मैं अतिरिक्त साहस और क्षमायाचना के साथ लिखना चाहता हूं। कारण है इसका एक ऐसी शख्सियत से जुड़ा होना जो अपने जीवित रहते तरह=तरह की किंवदंतियों और विवादों के केंद्र बिदु बन गए थे। यदि आगरा के सीमित संदर्भ में देखें तो उन्होंने इस दबे=सिकुड़े शहर को चलने=फिरने लायक बना दिया और इसके लिए उस वक्त खूब ही गालियां तथा बद्ïदुआएं बटोरीं। संजय गांधी एक अनोखे व्यक्ति थे। हमारे आदरणीय और अंग्रेजी के जाने=माने लेखक=पत्रकार श्री खुशवंत सिंह उनके प्रशंसक रहे हैं। श्री गांधी के साथ श्री सिंह के व्यक्तिगत संबंध रहे, लेकिन मेरे निजी संबंध उनके साथ नहीं बने। शायद इसलिए कि मैंने उन्हें हमेशा एक जि²ी, कानून को न मानने वाले और मनमानी करने वाले सत्ताधारी लाड़ले के रूप में ही व्यवहार करते पाया। शायद वे कभी किसी के लिए भी प्रेरणास्पद नहीं बन सके। हालांकि अपनी इन्हीं 'विशेषताओं ' की बदौलत उन्होंने आगरा को इस लायक बना दिया कि आज शहर की मुख्य सडक़ महात्मा गांधी मार्ग से अधिक कठिनाई के बिना गुजरा जा सकता है। इसके लिए उनके आदेश पर तब के कमिश्नर श्री के. किशोर और एडमिनिस्ट्रेटर श्री अनादिनाथ सेगल ने तमाम कानूनों को धता बताकर दर्जनों मकानों, कोठियों और बस्तियों को मजबूरी में तुड़वाया और नगरवासी मीसा (मेंटेनेंस ऑफ इंटरनल सिक्योरिटी एक्ट) के चलते इतने भयग्रस्त रहे कि कोई भी इस तोडफ़ोड़ के खिलाफ अदालत का दरवाजा खटखटाने की जुर्रत न कर पाया। संजय गांधी के लिए उस समय स्टेट्ïसमैन और बाद में एक=दो दूसरे अंग्रेजी अखबार भी ईसीए (एक्स्ट्रा कंस्टीट्ïयूशनल अथॉरिटी या संविधानेतर शक्ति) विशेषण का प्रयोग करते थे। लेकिन जो भी कहा जाए, यह संजय गांधी का ही प्रताप था कि उन्होंने लगातार योजनाविहीन ढंग से बढ़ते=फैलते आगरा शहर के बीचोंबीच आ गए केंद्रीय कारागार को हटवाकर मथुरा रोड पहुंचवाया। आज उस स्थान पर सबसे आधुनिक और सुसज्जित बाजार शहर की रौनक बना हुआ है।
ये बातें 1974 से और 1975 के शुरू तक की हैं। संजय गांधी जब आगरा आते थे तो हमेशा यूपी के तब के मुख्यमंत्री नारायणदत्त तिवारी के साथ कार के द्वारा आते थे। हम आगरा के सर्किट हाउस पहुंचकर उनके आने का इंतजार करते, लेकिन पता लगता कि संजय गांधी बहुत तेज रफ्तार से कार को चलाते हुए ला रहे थे जिससे दो गाडिय़ां रास्ते में बेकार हो गईं। इसीलिए आने में देर हो रही है। उनके आते ही अफरातफरी मच जाती, प्रथम श्रेणी के अफसर भी सामने आने से कतराते। उनके मौखिक आदेश अध्यादेश से ज्यादा अहम होते। उन पर आननफानन में अमल होता। एक दिन तो श्री गांधी की मीटिंग के बाद जब श्री सेगल बाहर आए तो काफी तमतमाए हुए थे। वे कह रहे थे- सस्पेंड करेंगे... क्यों करेंगे... मैंने कौनसी बेईमानी की है, क्या गलत काम किया है, बीस साल से आईएएस हूं, क्या घर की खेती है? ... हुंह, मालिक (श्री सेगल राधास्वामी मत के अनुयायी थे और भगवान में अगाध आस्था रखते थे ) क्या देखता नहीं है,, जब गरीबों के घर उजाडऩे के लिए जाना पड़्ता है, तो मालिक की नाराजी और गरीबों की गालियां तो हम ही खाते हैं। जरा देर बाद श्री किशोर भी उनकी बगल में चुपचाप आ खड़े हुए थे और सिगार के लंबे-लंबे कश खींचे जा रहे थे। अंदर श्री गांधी और श्री तिवारी का उस समय लंच चल रहा था। (जारी )

Friday, October 3, 2008

चीरघर-4

एक दिन तो ऊदल ने हद ही पार कर दी। ग्वालियर रोड पर सैयां गांव के पास डाकुओं ने बाप-बेटे की हत्या कर घर का सारा माल लूट लिया था। पुलिस दोनों लाशों को पोस्टमार्टम के लिए छोड़ गई। दोनों विधवाएं दहाड़ें मार-मारकर थक चुकीं थीं। उनकी आंखों के आंसू भी सूख चुके थे। आज दूसरा दिन था। घर का वारिस बहू की गोद में था। साथ आए दूर-पास के कई हितैषी भी लौट गए थे। दोनों औरतों के पास शायद 10-20 रुपये ही बचे रह गए थे। उन बेचारियों के लिए बच्चे को दूध पिलाना भी मुहाल था। ऊदल पता नहीं कहां से आए, लेकिन वह कुछ सोचे हुए थे। मुझसे बोले- 'बाबू साब, दो कोरे कागज हैं क्या? मैंने पुलिंदे में से दो-तीन कागज निकालकर दे दिए। फिर वह बोले - 'बच्चे के लिए तो मैं दो-तीन बार संतराम से दूध ले आया, पर दोनों औरतें दो दिन से भूखी हैं। अब ऐसा करते हैं कि बाजार से कुछ चंदा कर लेते हैं। आप भी जरा साथ चलो। हालांकि मुझे थोड़ी जल्दी दी थी, कहीं पहुंचना था, पर ऊदल के भावुक इसरार पर मैंने दूसरे काम टाल दिए। सबसे पहले हम एक परिचित पान की दुकान पर रुके, फिर एक-एक करके दुकानदारों के नाम लिखना शुरू हुआ और आधे घंटे में ही 300 रुपये से ज्यादा जमा हो गए। यह पहला मौका नहीं था। इससे पहले भी ऊदल कई बार वक्त के सताए लोगों की मदद कर चुके थे, लेकिन इस बार तो सारी हदें ही टूट गईं। नौकरी चले जाने की परवाह किए बगैर उन्होंने चंदे से जमा पैसों के साथ कागजी खानापूरी भी खुद करके महिलाओं को उनके पतियों की लाशें सौंप दीं। हां, उससे पहले एक कागज पर लाशों का हाल जरूर मुझसे लिखवा लिया।
दिल्ली से लौटने पर ऊदल मुझे करीब दो दशक बाद एक दिन अचानक इमरजेंसी अस्पताल के पास मिल गए। चेहरे पर वही शांति-निश्छलता और आंखों में लाल डोरे। ऊदल साइकिल से उतर पड़े। क्या साब, दिल्ली से कब आए। मैं अब यहीं आ गया हूं, मैंने कहा। फिर पूछा- चीरघर जाते हैं क्या अब भी? बोले, 'नहीं साब, अब वहां नहीं जाता। वह मनहूस जगह है, वो लाशघर है, वो आदमी को मार डालता है, उसकी हिम्मत, अरमान छीन लेता है। इस वक्त भी उनकी सीधी-सच्ची बातें मन को कहीं गहरे छू रही थीं। बस, पुराने दिनों के विपरीत उनका अंदाज फलसफाना था। मैं सोचने लगा, शायद बढ़ती उम्र ने वो जिंदादिली और दूसरों के लिए हमेशा न्यौछावर होने को तत्पर रहने वाले तेवर छीन लिए। लेकिन बात कुछ और थी। एक दिन जब हमेशा की तरह ऊदल दोपहर को चीरघर अपनी ड्यूटी पर पहुंचे तो गश खाकर गिर पड़े। मुंह अंधेरे पुलिस जिन दो लाशों को लावारिस बताकर पोस्टमार्टम के लिए छोड़ गई थी, उनमें से एक उनके 19 साल के बेटे मनकू और दूसरी पड़ोसी के बेटे भीमा की थी। रात की ड्यूटी करके दोनों साइकिल से घर लौट रहे थे कि कोई रईसजादा तेजरफ्तार कार से उन्हें कुचलता हुआ फरार हो गया था। (समाप्त)

Thursday, October 2, 2008

चीरघर-३

ऊदल स्वभाव से बेहद भावुक, भोले और निष्कपट इंसान हैं। इसीलिए जब किसी दिन लावारिस लाश आ जाती, उस दिन उनकी खुशी सहज ही उनके चेहरे पर झलकती। सरकारी कायदे के मुताबिक किसी लाश को ठिकाने लगाने (क्रियाकर्म) के लिए उन्हें 25 रुपये मिलते। सरकारी मान्यता के अनुसार इतनी राशि कफन और लकड़ी बगैरह के लिए काफी मानी जाती है। इसके अलावा श्मशान तक लाश को पहुंचाने के लिए आठ रुपये अलग से मिलते। लाश को 'ठिकाने लगाने की जिम्मेदारी असल में पुलिस की होती है, पर इस झंझट से बचने के लिए पुलिस वाले ऊदल के ही सिजदे करते। कई बार तो लाश सड़ी-गली या बहुत घिनौनी हालत में होती।
ऐसे मौके पर लाश को 'ठिकाने लगाना तो दूर, कोई उसके नजदीक जाने तक को राजी न होता, लेकिन ऊदल के लिए यह मौका दावत मिल जाने जैसा होता। बाद में तो ऊदल की खुशी देखकर ही समझ में आने लगा था कि कोई लावारिस लाश आ गई है। ऊदल की जो बात दिल दिल को सबसे ज्यादा छूती, वह थी अपने काम के प्रति उनकी ईमानदारी और तत्परता। लाश को 'ठिकाने लगानेÓ का काम भी वह उसी संजीदगी और नियम-कायदे से करते, जितना मंत्र पढ़ते हुए कोई ब्राह्मण विधि-विधान से अंतिम संस्कार कराता है। ऊदल दो या तीन रुपये देकर किराए पर रिक्शा लाते। लाश को कपड़े में सिलते, फिर उसे रिक्शे से बांधते। अस्पताल में से ही एक साथी को ढूढ लाते, जो लाश उठवाकर किसी सुनसान स्थान पर यमुना में फेंकने के काम में उनका हाथ बंटा सके।
ऊदल का काम ही ऐसा है कि उनके पास आने वाले लोग दुखी और परेशानहाल होते। उन लोगों का दुख दो स्तरों पर होता। एक तो अपने निकट सगे-संबंधी की असमय मौत, और उससे भी बड़ी परेशानी रहती- पोस्टमार्टम और पंचनामे के बाद लाश हासिल करने के लिए सरकारी खानापूरी से छुटकारा पाने की। दूरदराज के किसी गांव-कस्बे से आए लोग चीरघर के बाहर सर्दी, गर्मी या बारिश की परवाह किए बगैर लाश मिलने के इंतजार में वक्त काटते रहते। कभी जब डाक्टर न आता तो उन भूखे-प्यासे नाते-रिश्तेदारों का लाचार हाल देखकर बड़ा तरस आता। लाश मिलने में कभी-कभी दो दिन भी लग जाते। ऐसे में ऊदल का भावुक मन पसीज जाता और वह उनके लिए कुछ करने की जुगाड़ में लग जाते। (अगले पोस्ट में अन्तिम )

Tuesday, September 30, 2008

चीरघर -2

उस शाम करीब चार बजे अचानक घने बादल घिर आए और देखते-देखते घटाटोप हो गया। रिपोर्टिंग के उस दिन के अंतिम पड़ाव यानी चीरघर पहुंचा तो वहां ऊदल नहीं दिखे। उनकी तलाश में चारों ओर निगाह दौड़ाई, लेकिन व्यर्थ। मेरी नजर बरामदे में जमीन पर रखी पांच लाशों पर ठहर गई। उनमें से दो के तो पूरे ही शरीर पर रुई के नमदे लिपटे हुए थे, जो तूफानी हवा के तेज झोंकों में इस तरह उड़-उड़ जा रहे थे जैसे कोई उन्हें खींच रहा हो। इस सारे दृश्य ने मुझे कुछ बेचैन कर दिया, मैंने फिर तेज और लंबी आवाज में ऊदल को पुकारा, लेकिन कोई जवाब नहीं आया। तभी चीरघर के बंद दरवाजे के एक टूटे शीशे से दो तेज-चमकीली आंखें बाहर झांकती हुई दिखाई दीं, लगा जैसे पोस्टमार्टम के लिए लाई गई कोई लाश बाहर निकलने का रास्ता ढूंढ़ रही है। अजीब सी सिहरन पीठ में दौड़ गई। मैं झटके के साथ कई कदम पीछे हट गया, यहां तक कि भीगने की परवाह किए बगैर बरामदे की सीढिय़ों से उतरकर खुले आकाश में आ खड़ा हुआ। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि माजरा क्या है? जब मैंने टूटे शीशे के झरोखे से झांककर देखा था तो हर तिपाई पर लाश लेटी हुई थी, यानी सात लाशें अंदर और पांच बाहर थीं ; मतलब वहां कई सनसनीखेज खबरें मौजूद थीं और मैं इतनी सारी खबरें यूंही छोडक़र जा भी नहीं सकता था। मेरा खबरची कहीं दिख नहीं रहा था। घबराया हुआ मैं इस बीच बारिश से बचने के लिए पीपल के पेड़ तले शरण ले चुका था।
तभी चीरघर का दरवाजा खुला और अंधेरे को चीरता एक शख्स बाहर की ओर आता दिखाई दिया। आदमी है या लाश! मैंने सोचा। बरामदे की सीढिय़ों पर आकर वह रुका और आवाज दी, 'बाबू साब।Ó यह ऊदल की आवाज थी। उनकी पुकार कानों में पड़ते ही मेरी हिम्मत लौटी और मैं उनकं पास आकर खड़ा हो गया। 'थक गया था, एक तिपाई खाली दिखी तो चादर तानकर सो गया, साब। उन्होंने उसी चिरपरिचित अंदाज में सिगरेट मांगी और फिर बताने लगे : ''औरतों के जलने के आज चार केस हैं साब, रामवती 19 साल, सौ फीसदी जली हुई, मथुरा की है; चंदा और गीता दोनों फिरोजाबाद की हैं - उमर 20 और 18, पूरी जली हुई। एक कचहरी घाट की है, कमलेश, वो भी जवान है 23 की और स्टोव फटने से ही जली है।
फिर ऊदल बोले - सब जवान औरतें स्टोव फटने से ही क्यों मरती हैं? यह सवाल दागकर वह तो सिगरेट के गहरे कश लेने लगे, लेकिन मेरा दिमाग ग्रामोफोन की सुई की तरह अटक गया। सब जवान औरतें स्टोव फटने से ही क्यों मरती हैं? ऊदल कश पर कश लिए जा रहे थे ; और अपने काम में लगे हुए थे- ''दो लाशें शमसाबाद से आईं हैं, डाकुओं की गोली लगी है। एक लावारिस है, शिनाख्त नहीं हुई है, और हां, दो फतेहाबाद में फौजदारी में लाठियों की चोटों से मरे हैं। एक साथ इतनी खबरों के मिलने से मैं लाश के उठ खड़े होकर बाहर झांकने के हादसे को तो भूल गया, लेकिन ऊदल का सवाल मेरे सोचने की लय को बार-बार तोडऩे लगा- सब जवान औरतें स्टोव फटने से ही क्यों मरती हैं? (अगले पोस्ट में जारी )

Monday, September 29, 2008

चीरघर

ऊदल ने इस असार संसार से प्रस्थान के कारण को बहुत करीब से जाना है। उन्होंने प्राण पखेरू उड़ जाने की अवश्यम्भावी होतव्यता के लिए जितने भी बहाने कहे-बताए जा सकते हैं, उन सबको घटते हुए देखा है। किसी की इहलीला जल जाने से खत्म हुई या जहर खाने से, वह गोली लगने से मरा या चाकू घोंपने से, मौत की वजह फांसी लगा लेना रहा या गला घोंट देना या पानी में डूब जाना, ऊदल पलक छपकते इन बातों को बारीकी से समझते और शुमार करते रहे हैं। कोई ट्रेन से कट गया, तो कोई ट्रक से कुचल गया, किसी की जान पुलिस की पिटाई ने ले ली ; ऊदल ने नश्वर शरीर को छोडऩे के सभी उपाय और साधन देखे-समझे हैं। लेकिन यह ऊदल को खुद भी नहीं मालूम कि इन 30-32 सालों में उन्होंने कितने लोगों की मोक्ष प्राप्ति में हिस्सा बंटाया!
दौड़ते-धडक़ते शरीरों द्वारा प्राण छोडऩे की वजहों को टटोलते और उन निर्जीव देहों को ठीक से सहेजकर उनके नाते-रिश्तेदारों को सौंपने या खुद उनकी अंतिम क्रिया की जिम्मेदारी निभाते रहने के बावजूद ऊदल ने जज्वात और इंसानियत की डोर को पूरी जिन्दगी बड़ी मजबूती से थामे रखा। मैंने उनके माथे पर कभी भी हताशा या खिसियाहट की शिकन उभरते नहीं देखी। वह जब भी मिलते, पूरी शिद्दत से बात करते और बेहद तहजीब से पेश आते, अलवत्ता होते हमेशा नशे में। उनके गालों की उभरी हुई हड्डियाँ और नुकीली नाक तथा थोड़ी लंबी ठुड्डी और उन पर लाल-लाल आंखें अलग से ही पहचानी जा सकती थीं। रंग उनका पूरी तरह आबनूस से मेल खाता हुआ। कद लगभग 5 फुट 9 इंच। लेकिन ऊदल की सबसे खासियत उनकी आँखें थीं । उनकी लाल-लाल आंखों में एक अजीब सी चमक रहती, और वो हमेशा कुछ बोलती, कहती महसूस होतीं। ऊदल ख़ुद कम ही बोलते थे । जो कहना होता, उसका काफी कुछ तो उनकी आंखें ही कह देतीं। कभी वह हमें चाय पिलाने की इच्छा रखते तो बिना पूछे ही संतराम को स्पेशल चाय का आर्डर दे आते। सिगरेट मांगनी होती तो बस पेंट की जेब की तरफ नजर डालते और हम समझ जाते, वो क्या चाहते हैं। हां, हम लोगों को देखकर उनके निर्मल-शांत मन में एक तरह की खुशी भर जाती। उनमें संता जैसी शुचिता थी, बालसुलभ सरलता थी, जिसका अहसास बराबर होता रहता था । वो औपचारिकता पूरी करने पर भी खास ध्यान नहीं देते, नमस्कार के साथ ही उस दिन चीरघर में आई लाशों की तफसील देना शुरू कर देते।
ऊदल दलित हैं, दलितों में दलित। फिर भी उन्हें इस बात का फक्र है कि वह बड़े सरकारी अस्पताल में काम करते हैं और शहर के नाले के किनारे आधे छप्परवाले एक घरनुमा घेरे में रहते हैं। हम चाहे जो सोचें, ऊदल अपने काम को बेहद जिम्मेदारी का मानते हैं, और उसी शिद्दत के साथ उसे पूरा करते हैं, सच तो यह है कि पोस्टमार्टम का काम वही पूरा करते हैं। शाम को 4 बजे जब डॉक्टर साब आते, तब तक लाशों की संभाल और उनकी जांच-परख का काम वही करते, पोस्टमार्टम के लिए पुलिस वाले जो भी लाश लाते, वह ऊदल के ही हवाले होती। लाशें रखने के लिए वहां पत्थर की सात तिपाइयां थीं। जो भी तिपाई खाली होती, उस पर लाश को बड़े सधे हाथों से लिटाने के साथ ऊदल एक गहरी नजर डाल लेते कि जख्म कहां-कहां हैं। मौत की वजह का भी वह निर्धारण करते जाते। ऊदल ही डाक्टर को बताते- जख्म कितना गहरा है, इसकी पैमाइश वह अपनी नपी-तुली उंगलियों से कर लेते। रिपोर्ट वही तैयार कराते। कई बार थके-मांदे ऊदल तिपाई खाली होने पर कूलर की ठंडी हवा में खुद भी उन्हीं लाशों के बीच सो जाते। उन्हीं ऊदल ने एक शाम मेरी जान सांसत में डाल दी थी। (अगले पोस्ट में जारी )

Tuesday, September 23, 2008

जब अटक गई ट्रेन-2

मैं जानता था, रिक्शा चालक अपनी भरसक ताकत से पेडल घुमा रहा था, इसके बावजूद मैं बार-बार सोच रहा था कि किस तरीके से पेडल को और तेज चलाने में उसकी सहायता कर सकता हूँ? जब मैं कैंट स्टेशन पहुँचा, 5.40 बज चुके थे और प्लेटफोर्म खाली पड़ा था. मैं धक् से रह गया. वहाँ एक दो स्थानों पर फूलों की कुछ पंखुरियां बिखरी पड़ी थीं जो किसी अपने द्वारा किसी अपने के स्वागत की ख़बर दे रही थीं. स्पेशल ट्रेन को यार्ड में भेजा जा चुका था. प्लेटफोर्म ट्रेन जाने के बाद की सुस्ती और ऊंघ के अंदाज़ में लौट आया था.
किसी अंधेरे गड्ढे में गिर जाने जैसी दिमागी हालत महसूस करते हुए वेंडर से मैंने सिगरेट खरीदकर जलाई और स्टेशन मास्टर के पास पहुंचकर कुछ जानकारी हासिल करने की कोशिश की, लेकिन उसकी दुनिया बहुत छोटी थी. उसे इस बात से भी ज्यादा सरोकार नहीं था कि घायल होकर लौटे पैराटूपर्स् ( आगरा में ही देश का अकेला para troopers ट्रेनिंग स्कूल है और 3 दिसम्बर की रात को पाकिस्तान ने आगरा के हवाई अड्डे पर हमले के साथ ही युद्ध की शुरुआत की थी) पाकिस्तान से युद्ध जीतकर आए हैं. दिमाग उलझन, खीज, परेशानी कि हालत में तो था पर अब भी गतिशील था. मुझे किसी तरह इतनी बात कौंध गयी कि छावनी क्षेत्र के सैनिक अस्पताल में जाकर देखना चाहिए. मैं वहाँ पहुँचा. अच्छी खासी गहमागहमी देखकर कुछ आश्वस्त होने लगा. लाउन्ज में एक डॉक्टर से पूछा, पर शायद वो जल्दी में था. रिसेप्शन पर भीड़ थी, कुछ मिनट इन्तजार के बाद एक स्मार्ट युवक मुखातिब हुआ, what you want ? मैंने उसे बताया कि घायल सैनिकों की ख़बर कवर करने आया हूँ, आप किसी तरह कुछ घायल सैनिकों और उनके परिवार के लोगों से मिलवा दें तो मैं अपनी ड्यूटी पूरी कर पाऊंगा. रेसप्सनिस्ट मुझे एक बड़े केबिन में ले गया, बाहर शायद ले. कर्नल की तख्ती लगी थी. काफी सीनियर आर्मी रैंक वाले उस डॉक्टर से मैंने घायल होकर बहादुर सैनिकों के शौर्य का बखान करते हुए कहा कि आम लोग उनके बारे में और बहुत कुछ जानना चाहते हैं. यदि आप अनुमति दे दें तो मैं उनसे बात करके युद्ध के उनके संक्षिप्त अनुभव पेपर में देना चाहता हूँ. शायद वह डॉ. धीर थे, वह उठे और मुझे वार्ड में ले जाकर कुछ कम घायल सैनिकों से ख़ुद मिलवाया. वहाँ कई के बच्चे व पत्नी भी थी. उनका नाम, पति के घायल होने से जुड़ी उनकी फीलिंग, उन सैनिकों के अनुभव का एक विहंगम वर्णंन लेकर मैं लौटा तो सात बज रहे थे. मैंने फ़िर रिक्शे का ही सहारा लिया, पर अब वैसी उतावली या घबराहट नहीं थी. मैंने दफ्तर पंहुचकर इत्मीनान से ख़बर लिखी. ख़बर क्या, वह एक बहुत ही भावपूर्ण ढंग से लिखा गया शब्दचित्र था. दो-तीन ज्यादा घायल सैनिकों से आपबीती के बारे में छोटी-छोटी बातचीत भी थी. उसमें स्टेशन पर घायल वायुसैनिकों से पत्नी और बच्चों के भावुक मिलन को वर्णित करने के लिए गढा हुआ एक छोटा सा बॉक्स भी था. समाचार लिखकर संपादक को देने के बाद मैंने राहत की साँस ली. दूसरे दिन के अख़बार में उस ख़बर ने byline के साथ टॉप बॉक्स के रूप में जगह ले रखी थी. पहली ख़बर, पहली byline , पहला पेज. अगले दिन दफ्तर पहुँचा तो संपादक सहित मेरे विभाग के सीनिअर्स और साथियों ने इतनी ''तथ्यपरक, मार्मिक और मुकम्मिल'' ख़बर के लिए पीठ ठोंकी. मेरे पास खुशी का कारन तो था, पर समय पर स्टेशन न पहुँच पाने का मलाल भी था. बहरहाल, मेरा काम तीन-चार दिन बाद ही बदल दिया गया था. मुझे अब रिपोर्टिंग का काम दे दिया गया था.

Monday, September 22, 2008

जब अटक गई ट्रेन

बात 1971 के दिसम्बर महीने के तीसरे सप्ताह की है। सितम्बर महीने में श्री ओमप्रकाश लवानिया के साथ मैंने दैनिक सैनिक छोड़कर अमर उजाला ज्वाइन किया था। यह वह समय था जब पूर्वी पाकिस्तान में शेख मुजीबुर्रहमान की मुक्तिवाहिनी के नेतृत्व में पश्चिमी पाकिस्तान के विरूद्ध सशस्त्र विद्रोह चल रहा था। अमर उजाला में मेरे काम की शुरुआत क़स्बों और गाँवों की खबरों के संपादन आदि से हुई थी।
घटना वाली शाम करीब 4 बजे डोरीलाल जी ने मुझे बुलाकर एक प्रेस रिलीज़ थमाई, जो वायु सेना की ओर से थी। उसमें सूचना थी कि शाम को 5 बजे एक स्पेशल ट्रेन घायल पैराटू्पर्स को लेकर आगरा कैंट स्टेशन पहुंचेगी। संपादक का निर्देश था कि फोटोग्राफर (श्री सत्य नारायण - अपने काम के प्रति एक गंभीर और समर्पित व्यक्ति ) को भी यह सूचना दे दूँ और स्टोरी को कवर करूँ। स्टेशन जाने-आने के लिए किराया मैनेजर कम कैशिअर कम सर्कुलेशन इंचार्ज से लेना था। लेकिन उन्होंने मुझे समझदारी और सयानेपन का परिचय देते हुए 4।20 बजे पास के ही स्टेशन से गुजरने वाली शटल ट्रेन से कैंट स्टेशन जाने की सलाह थमा दी। ये मेरा पहला असाइनमेंट था. मैं उस समय बिना कुछ सोचे इस सलाह को शिरोधार्य कर तुंरत स्टेशन की टिकट खिड़की पर 25 पैसे का टिकट लेकर ट्रेन में जा बैठा। ट्रेन रवाना हुई और अगले स्टेशन यानी राजा की मण्डी पर पहुंचकर रुक गई। लगभग 20 मिनट बीत गए तो मेरी परेशानी बदी। मैं गार्ड के डिब्बे की ओर लपका, वो सज्जन अपने डिब्बे के सामने बड़ी तसल्ली से खड़े कुल्लड़ में चाय सुड़क रहे थे। उनके फुरसती अंदाज़ से चिंता और बढ़ी। पास पहुँच कर पूछा - ट्रेन कब चलेगी ? गार्ड साब ने उसी बेफिक्री से जवाब दिया, केंट स्टेशन पर एक स्पेशल आने वाली है, जब वो आकर चली जायेगी, तब ये पैसेंजेर यहाँ से रवाना होगी। उस स्पेशल का मतलब तुंरत मेरी समझ में आ गया। मुझे लगा कि इम्तहान दिए बिना ही मैं परीक्षा में फेल हो गया हूँ। पल भर में ही मैंने जैसे भी हो, कैंट स्टेशन पहुँचने का फैसला किया और वहाँ से पटरियों को फलांगते हुए सरपट भागा। बिना किराया पूछे एक साइकिल रिक्शे में बैठ गया। उससे कहा, जितनी जल्दी हो सके कैंट स्टेशन ले चलो। ये दूरी सात किलोमीटर की थी। उस दिन जैसी लाचारी और खिसियाहट पूरे जीवन में शायद एक दो ही मौकों पर और महसूस की होगी।
(अगली पोस्ट में जारी)

Thursday, September 18, 2008

झंडे ने लहराया परचम

ये बात शायद 1972 के करीब की है. फोन तब कम ही थे, खबरों की तलाश के लिए काफी मशक्कत करनी होती थी. कलेक्ट्रट, जहाँ जिला प्रशासन के सभी दफ्तर थे, एसएसपी ऑफिस, मोर्चरी और इमर्जेंसी वार्ड जरुर जाना होता था. मेरे रोज़ के साथी दैनिक सैनिक के रिपोर्टर श्री रमाशंकर शर्मा और मैं उस दिन शहर के सभी उन ठिकानों की फेरी लगा चुके थे, जहाँ से खबरें generate होने की सम्भावना रहती थी. लेकिन कोई भी दिलचस्प ख़बर हाथ नहीं लग सकी थी. हम दोनों सिगरेट पीते हुए अपने-अपने दफ्तर के लिए लौट रहे थे. आगरा कालेज रास्ते में पड़ता था. हम दोनों वहाँ पान खाने के लिए रुक कर छात्रों से गप करने लगे. तभी एक लड़के ने बातचीत के दौरान बीकेडी का झंडा जलाने का जिक्र किया. उसने इस बात को कुछ ऐसे अंदाज़ में बताया था कि उसको हँसी मजाक के रूप में ही लिया जा सकता था. उसके अनुसार '' आज चार-पाँच लड़कों ने बीकेडी के झंडे को फूंक दिया.'' असल में वह चौधरी चरण सिंह का जमाना था. उन्होंने कुछ ही दिन पहले कांग्रेस छोड़कर बीकेडी (भारतीय क्रांति दल ) नाम से नई पार्टी बना ली थी और यूपी के मुख्यमंत्री भी बन गए थे. चौधरी साब ने कुर्सी पर बैठते ही सबसे पहला काम पूरे प्रांत में छात्र संघों को भंग करने का किया था. इस फैसले के विरोध में जगह-जगह आन्दोलन हो रहे थे, सबसे ज्यादा हंगामा पूर्वी उत्तरप्रदेश में किया जा रहा था.
उस दिन खाली हाथ लौटने के मलाल के साथ दफ्तर पहुँचा. चाय-सिगरेट मंगवाई. तभी विचार कौंधा, झंडे वाली ख़बर को ही क्यों न develop किया जाए और वह उस दिन की लीड बन गयी. उस ख़बर ने ऐसा समाँ बाँधा कि
अगले दिन से आगरा में सभी डिग्री कालेज बंद हो गए और छात्र सडकों पर उतर आए और जबरदस्त विरोध पनपते देख कर सिर्फ तीन दिन बाद चौधरी साब को छात्र संघों को भंग करने का आदेश भंग कर देना पड़ा. हाँ मेरे मित्र ने जरुर इस बात का थोड़ा बुरा माना, पर इसमें मेरी गलती कहाँ थी

Wednesday, September 17, 2008

नहीं भूलती इमरजेंसी की वह रात

इमरजेंसी लगी हुई थी. प्रेस सेंसरशिप भी लागू थी . रात का करीब एक बजा था. अखबार छ्पना शुरू हो चुका था, पहली लीड सिर्फ़ तीन कॉलम के हेडिंग के साथ छपी हुई थी - सुरक्षा बलों में अनुशासनहीनता बर्दाश्त नहीं होगी : इंदिरा गधी.

ओमप्रकाश लवानिया रात में थे. तब तक शायद वह 6-7 पैग चढ़ा चुके होंगे. लेकिन हमेशा की तरह थे एकदम अलर्ट. फोरमेन ओंकारनाथ ने लवानियाजी को अख़बार की शुरुआती प्रतियाँ लाकर दिखाई. रोको मशीन रोको, ओंकारनाथ काम निपटा चुकने के बाद घर जाने के मूड में थे और उनको दिनभर सम्पादकीय विभाग के त्रुटी निवारण के निर्देशों का पालन करते-करते झुंझलाहट भी आ चुकी होती थी. इस बीच मशीनमेन पूरी स्पीड पर मशीन को ला चुका था.

हड़बड़ी में लवानिया जी ख़ुद ही सीढियों की ओर भागे और गिर पड़े. गिरने की आवाज सुनकर मैं सीढियों की ओर दौड़ा और उन्हें उठाया. लवानिया जी ने जैसे-तैसे मुझे मामले की गंभीरता का एहसास कराया. मैं नीचे मशीन रूम में पंहुचा तो वहां मशीनमेन की जगह उनका हेल्पर मौजूद था. सब इंतजाम ठीकठाक मानकर मशीनमेन साहब खाने (या पीने ? ) गए हुए थे. मैंने हेल्पर को उस शोर में अपनी बात समझाने की कोशिश की तो उसका जवाब था– वैसे तो सब लोग समझ लेंगे कि गधी का मतलब गांधी से ही है, लेकिन आप लोगों को हर बात में मीनमेख निकालनी होती है. अब या तो पीटर (मशीनमैन) के आने तक रुको या फ़िर लवानिया जी से कहलवाओ.

मैं फ़िर दौड़ता ऊपर गया तो 40 किलो के लवानिया जी अभी तक जीने के बीच चांदे पर ही थे, हाँ उन्होंने दीवार का सहारा ले लिया था. दांये घुटने से खून बह रहा था और बायीं पिंडली की मात्र त्वचा से ढकी हुई हड्डी में चोट के कारण काफी तकलीफ थी. मैंने कुछ कहे बिना लवानिया जी को गोद में उठाया और मशीनरूम में पेश कर दिया. उनकी जबरदस्त फटकार के बाद मशीन रोकी गयी, शायद तब तक 7 हज़ार अखबार छप चुका था जिसे रद्दी किया गया और सुधार करके करीब 40 मिनट के बाद दोबारा छपाई शुरू हुई.

प्रिंटिंग मशीन का हेल्पर नहीं जानता था कि इमरजेंसी कि घोषणा होने पर अखबार का सम्पादकीय कालम खाली छोड़ने की बड़ी सख्त प्रतिक्रिया हुई थी. कांग्रेस के प्रमुख नेताओं का एक गुट दिल्ली में सत्ता की धुरी तक संदेश भेज रहा था कि ऐसे संपादक को गिरफ्तार करने का यह सुनहरा अवसर है. 26 जून को ही कलेक्टर ने संपादक को बुलाकर चेतावनी दे दी थी कि भविष्य में "सरकार के विरोध का कोई भी काम न किया जाए, अन्यथा प्रशासन उचित निर्णय लेने के लिए मजबूर होगा". घटना की शिकायत किसी ने नहीं की थी, लेकिन बात छिप भी नहीं सकती थी. संपादक की जानकारी में आने पर अगले दिन प्रूफ़ रीडर की गर्दन नप गयी. पता ये चला कि जनाब के साले साब मिलने आए थे और उनके साथ उस रात कुछ ज्यादा ही चढा ली थी.