Friday, October 3, 2008

चीरघर-4

एक दिन तो ऊदल ने हद ही पार कर दी। ग्वालियर रोड पर सैयां गांव के पास डाकुओं ने बाप-बेटे की हत्या कर घर का सारा माल लूट लिया था। पुलिस दोनों लाशों को पोस्टमार्टम के लिए छोड़ गई। दोनों विधवाएं दहाड़ें मार-मारकर थक चुकीं थीं। उनकी आंखों के आंसू भी सूख चुके थे। आज दूसरा दिन था। घर का वारिस बहू की गोद में था। साथ आए दूर-पास के कई हितैषी भी लौट गए थे। दोनों औरतों के पास शायद 10-20 रुपये ही बचे रह गए थे। उन बेचारियों के लिए बच्चे को दूध पिलाना भी मुहाल था। ऊदल पता नहीं कहां से आए, लेकिन वह कुछ सोचे हुए थे। मुझसे बोले- 'बाबू साब, दो कोरे कागज हैं क्या? मैंने पुलिंदे में से दो-तीन कागज निकालकर दे दिए। फिर वह बोले - 'बच्चे के लिए तो मैं दो-तीन बार संतराम से दूध ले आया, पर दोनों औरतें दो दिन से भूखी हैं। अब ऐसा करते हैं कि बाजार से कुछ चंदा कर लेते हैं। आप भी जरा साथ चलो। हालांकि मुझे थोड़ी जल्दी दी थी, कहीं पहुंचना था, पर ऊदल के भावुक इसरार पर मैंने दूसरे काम टाल दिए। सबसे पहले हम एक परिचित पान की दुकान पर रुके, फिर एक-एक करके दुकानदारों के नाम लिखना शुरू हुआ और आधे घंटे में ही 300 रुपये से ज्यादा जमा हो गए। यह पहला मौका नहीं था। इससे पहले भी ऊदल कई बार वक्त के सताए लोगों की मदद कर चुके थे, लेकिन इस बार तो सारी हदें ही टूट गईं। नौकरी चले जाने की परवाह किए बगैर उन्होंने चंदे से जमा पैसों के साथ कागजी खानापूरी भी खुद करके महिलाओं को उनके पतियों की लाशें सौंप दीं। हां, उससे पहले एक कागज पर लाशों का हाल जरूर मुझसे लिखवा लिया।
दिल्ली से लौटने पर ऊदल मुझे करीब दो दशक बाद एक दिन अचानक इमरजेंसी अस्पताल के पास मिल गए। चेहरे पर वही शांति-निश्छलता और आंखों में लाल डोरे। ऊदल साइकिल से उतर पड़े। क्या साब, दिल्ली से कब आए। मैं अब यहीं आ गया हूं, मैंने कहा। फिर पूछा- चीरघर जाते हैं क्या अब भी? बोले, 'नहीं साब, अब वहां नहीं जाता। वह मनहूस जगह है, वो लाशघर है, वो आदमी को मार डालता है, उसकी हिम्मत, अरमान छीन लेता है। इस वक्त भी उनकी सीधी-सच्ची बातें मन को कहीं गहरे छू रही थीं। बस, पुराने दिनों के विपरीत उनका अंदाज फलसफाना था। मैं सोचने लगा, शायद बढ़ती उम्र ने वो जिंदादिली और दूसरों के लिए हमेशा न्यौछावर होने को तत्पर रहने वाले तेवर छीन लिए। लेकिन बात कुछ और थी। एक दिन जब हमेशा की तरह ऊदल दोपहर को चीरघर अपनी ड्यूटी पर पहुंचे तो गश खाकर गिर पड़े। मुंह अंधेरे पुलिस जिन दो लाशों को लावारिस बताकर पोस्टमार्टम के लिए छोड़ गई थी, उनमें से एक उनके 19 साल के बेटे मनकू और दूसरी पड़ोसी के बेटे भीमा की थी। रात की ड्यूटी करके दोनों साइकिल से घर लौट रहे थे कि कोई रईसजादा तेजरफ्तार कार से उन्हें कुचलता हुआ फरार हो गया था। (समाप्त)

1 comment:

अनुराग अन्वेषी said...

अद्भुत संस्मरण। जिंदगी के रास्ते में ऐसा मोड़! जिस रोचक अंदाज में यह संस्मरण शुरू हुआ था, अंत में ऐसे मोड़ पर पहुंचाएगी, यह सोच पाना मुश्किल था। पता नहीं कितनों के बेटे यू ही लावारिश घोषित हो जाते ! :-(