Monday, September 22, 2008

जब अटक गई ट्रेन

बात 1971 के दिसम्बर महीने के तीसरे सप्ताह की है। सितम्बर महीने में श्री ओमप्रकाश लवानिया के साथ मैंने दैनिक सैनिक छोड़कर अमर उजाला ज्वाइन किया था। यह वह समय था जब पूर्वी पाकिस्तान में शेख मुजीबुर्रहमान की मुक्तिवाहिनी के नेतृत्व में पश्चिमी पाकिस्तान के विरूद्ध सशस्त्र विद्रोह चल रहा था। अमर उजाला में मेरे काम की शुरुआत क़स्बों और गाँवों की खबरों के संपादन आदि से हुई थी।
घटना वाली शाम करीब 4 बजे डोरीलाल जी ने मुझे बुलाकर एक प्रेस रिलीज़ थमाई, जो वायु सेना की ओर से थी। उसमें सूचना थी कि शाम को 5 बजे एक स्पेशल ट्रेन घायल पैराटू्पर्स को लेकर आगरा कैंट स्टेशन पहुंचेगी। संपादक का निर्देश था कि फोटोग्राफर (श्री सत्य नारायण - अपने काम के प्रति एक गंभीर और समर्पित व्यक्ति ) को भी यह सूचना दे दूँ और स्टोरी को कवर करूँ। स्टेशन जाने-आने के लिए किराया मैनेजर कम कैशिअर कम सर्कुलेशन इंचार्ज से लेना था। लेकिन उन्होंने मुझे समझदारी और सयानेपन का परिचय देते हुए 4।20 बजे पास के ही स्टेशन से गुजरने वाली शटल ट्रेन से कैंट स्टेशन जाने की सलाह थमा दी। ये मेरा पहला असाइनमेंट था. मैं उस समय बिना कुछ सोचे इस सलाह को शिरोधार्य कर तुंरत स्टेशन की टिकट खिड़की पर 25 पैसे का टिकट लेकर ट्रेन में जा बैठा। ट्रेन रवाना हुई और अगले स्टेशन यानी राजा की मण्डी पर पहुंचकर रुक गई। लगभग 20 मिनट बीत गए तो मेरी परेशानी बदी। मैं गार्ड के डिब्बे की ओर लपका, वो सज्जन अपने डिब्बे के सामने बड़ी तसल्ली से खड़े कुल्लड़ में चाय सुड़क रहे थे। उनके फुरसती अंदाज़ से चिंता और बढ़ी। पास पहुँच कर पूछा - ट्रेन कब चलेगी ? गार्ड साब ने उसी बेफिक्री से जवाब दिया, केंट स्टेशन पर एक स्पेशल आने वाली है, जब वो आकर चली जायेगी, तब ये पैसेंजेर यहाँ से रवाना होगी। उस स्पेशल का मतलब तुंरत मेरी समझ में आ गया। मुझे लगा कि इम्तहान दिए बिना ही मैं परीक्षा में फेल हो गया हूँ। पल भर में ही मैंने जैसे भी हो, कैंट स्टेशन पहुँचने का फैसला किया और वहाँ से पटरियों को फलांगते हुए सरपट भागा। बिना किराया पूछे एक साइकिल रिक्शे में बैठ गया। उससे कहा, जितनी जल्दी हो सके कैंट स्टेशन ले चलो। ये दूरी सात किलोमीटर की थी। उस दिन जैसी लाचारी और खिसियाहट पूरे जीवन में शायद एक दो ही मौकों पर और महसूस की होगी।
(अगली पोस्ट में जारी)

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