Monday, September 29, 2008

चीरघर

ऊदल ने इस असार संसार से प्रस्थान के कारण को बहुत करीब से जाना है। उन्होंने प्राण पखेरू उड़ जाने की अवश्यम्भावी होतव्यता के लिए जितने भी बहाने कहे-बताए जा सकते हैं, उन सबको घटते हुए देखा है। किसी की इहलीला जल जाने से खत्म हुई या जहर खाने से, वह गोली लगने से मरा या चाकू घोंपने से, मौत की वजह फांसी लगा लेना रहा या गला घोंट देना या पानी में डूब जाना, ऊदल पलक छपकते इन बातों को बारीकी से समझते और शुमार करते रहे हैं। कोई ट्रेन से कट गया, तो कोई ट्रक से कुचल गया, किसी की जान पुलिस की पिटाई ने ले ली ; ऊदल ने नश्वर शरीर को छोडऩे के सभी उपाय और साधन देखे-समझे हैं। लेकिन यह ऊदल को खुद भी नहीं मालूम कि इन 30-32 सालों में उन्होंने कितने लोगों की मोक्ष प्राप्ति में हिस्सा बंटाया!
दौड़ते-धडक़ते शरीरों द्वारा प्राण छोडऩे की वजहों को टटोलते और उन निर्जीव देहों को ठीक से सहेजकर उनके नाते-रिश्तेदारों को सौंपने या खुद उनकी अंतिम क्रिया की जिम्मेदारी निभाते रहने के बावजूद ऊदल ने जज्वात और इंसानियत की डोर को पूरी जिन्दगी बड़ी मजबूती से थामे रखा। मैंने उनके माथे पर कभी भी हताशा या खिसियाहट की शिकन उभरते नहीं देखी। वह जब भी मिलते, पूरी शिद्दत से बात करते और बेहद तहजीब से पेश आते, अलवत्ता होते हमेशा नशे में। उनके गालों की उभरी हुई हड्डियाँ और नुकीली नाक तथा थोड़ी लंबी ठुड्डी और उन पर लाल-लाल आंखें अलग से ही पहचानी जा सकती थीं। रंग उनका पूरी तरह आबनूस से मेल खाता हुआ। कद लगभग 5 फुट 9 इंच। लेकिन ऊदल की सबसे खासियत उनकी आँखें थीं । उनकी लाल-लाल आंखों में एक अजीब सी चमक रहती, और वो हमेशा कुछ बोलती, कहती महसूस होतीं। ऊदल ख़ुद कम ही बोलते थे । जो कहना होता, उसका काफी कुछ तो उनकी आंखें ही कह देतीं। कभी वह हमें चाय पिलाने की इच्छा रखते तो बिना पूछे ही संतराम को स्पेशल चाय का आर्डर दे आते। सिगरेट मांगनी होती तो बस पेंट की जेब की तरफ नजर डालते और हम समझ जाते, वो क्या चाहते हैं। हां, हम लोगों को देखकर उनके निर्मल-शांत मन में एक तरह की खुशी भर जाती। उनमें संता जैसी शुचिता थी, बालसुलभ सरलता थी, जिसका अहसास बराबर होता रहता था । वो औपचारिकता पूरी करने पर भी खास ध्यान नहीं देते, नमस्कार के साथ ही उस दिन चीरघर में आई लाशों की तफसील देना शुरू कर देते।
ऊदल दलित हैं, दलितों में दलित। फिर भी उन्हें इस बात का फक्र है कि वह बड़े सरकारी अस्पताल में काम करते हैं और शहर के नाले के किनारे आधे छप्परवाले एक घरनुमा घेरे में रहते हैं। हम चाहे जो सोचें, ऊदल अपने काम को बेहद जिम्मेदारी का मानते हैं, और उसी शिद्दत के साथ उसे पूरा करते हैं, सच तो यह है कि पोस्टमार्टम का काम वही पूरा करते हैं। शाम को 4 बजे जब डॉक्टर साब आते, तब तक लाशों की संभाल और उनकी जांच-परख का काम वही करते, पोस्टमार्टम के लिए पुलिस वाले जो भी लाश लाते, वह ऊदल के ही हवाले होती। लाशें रखने के लिए वहां पत्थर की सात तिपाइयां थीं। जो भी तिपाई खाली होती, उस पर लाश को बड़े सधे हाथों से लिटाने के साथ ऊदल एक गहरी नजर डाल लेते कि जख्म कहां-कहां हैं। मौत की वजह का भी वह निर्धारण करते जाते। ऊदल ही डाक्टर को बताते- जख्म कितना गहरा है, इसकी पैमाइश वह अपनी नपी-तुली उंगलियों से कर लेते। रिपोर्ट वही तैयार कराते। कई बार थके-मांदे ऊदल तिपाई खाली होने पर कूलर की ठंडी हवा में खुद भी उन्हीं लाशों के बीच सो जाते। उन्हीं ऊदल ने एक शाम मेरी जान सांसत में डाल दी थी। (अगले पोस्ट में जारी )

3 comments:

संगीता पुरी said...

शब्दों के सफर से आपका लिंक मिला था....... आपको पहले भी पढ़ चुकी हूं.......शायद कमेंट भी किया था....... अच्छा लिखते हैं आप....शुभकामनाएं।

Udan Tashtari said...

पढ़ रहे हैं-अच्छा लिखा है. जारी रखिये.

प्रदीप मानोरिया said...

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