Tuesday, September 23, 2008

जब अटक गई ट्रेन-2

मैं जानता था, रिक्शा चालक अपनी भरसक ताकत से पेडल घुमा रहा था, इसके बावजूद मैं बार-बार सोच रहा था कि किस तरीके से पेडल को और तेज चलाने में उसकी सहायता कर सकता हूँ? जब मैं कैंट स्टेशन पहुँचा, 5.40 बज चुके थे और प्लेटफोर्म खाली पड़ा था. मैं धक् से रह गया. वहाँ एक दो स्थानों पर फूलों की कुछ पंखुरियां बिखरी पड़ी थीं जो किसी अपने द्वारा किसी अपने के स्वागत की ख़बर दे रही थीं. स्पेशल ट्रेन को यार्ड में भेजा जा चुका था. प्लेटफोर्म ट्रेन जाने के बाद की सुस्ती और ऊंघ के अंदाज़ में लौट आया था.
किसी अंधेरे गड्ढे में गिर जाने जैसी दिमागी हालत महसूस करते हुए वेंडर से मैंने सिगरेट खरीदकर जलाई और स्टेशन मास्टर के पास पहुंचकर कुछ जानकारी हासिल करने की कोशिश की, लेकिन उसकी दुनिया बहुत छोटी थी. उसे इस बात से भी ज्यादा सरोकार नहीं था कि घायल होकर लौटे पैराटूपर्स् ( आगरा में ही देश का अकेला para troopers ट्रेनिंग स्कूल है और 3 दिसम्बर की रात को पाकिस्तान ने आगरा के हवाई अड्डे पर हमले के साथ ही युद्ध की शुरुआत की थी) पाकिस्तान से युद्ध जीतकर आए हैं. दिमाग उलझन, खीज, परेशानी कि हालत में तो था पर अब भी गतिशील था. मुझे किसी तरह इतनी बात कौंध गयी कि छावनी क्षेत्र के सैनिक अस्पताल में जाकर देखना चाहिए. मैं वहाँ पहुँचा. अच्छी खासी गहमागहमी देखकर कुछ आश्वस्त होने लगा. लाउन्ज में एक डॉक्टर से पूछा, पर शायद वो जल्दी में था. रिसेप्शन पर भीड़ थी, कुछ मिनट इन्तजार के बाद एक स्मार्ट युवक मुखातिब हुआ, what you want ? मैंने उसे बताया कि घायल सैनिकों की ख़बर कवर करने आया हूँ, आप किसी तरह कुछ घायल सैनिकों और उनके परिवार के लोगों से मिलवा दें तो मैं अपनी ड्यूटी पूरी कर पाऊंगा. रेसप्सनिस्ट मुझे एक बड़े केबिन में ले गया, बाहर शायद ले. कर्नल की तख्ती लगी थी. काफी सीनियर आर्मी रैंक वाले उस डॉक्टर से मैंने घायल होकर बहादुर सैनिकों के शौर्य का बखान करते हुए कहा कि आम लोग उनके बारे में और बहुत कुछ जानना चाहते हैं. यदि आप अनुमति दे दें तो मैं उनसे बात करके युद्ध के उनके संक्षिप्त अनुभव पेपर में देना चाहता हूँ. शायद वह डॉ. धीर थे, वह उठे और मुझे वार्ड में ले जाकर कुछ कम घायल सैनिकों से ख़ुद मिलवाया. वहाँ कई के बच्चे व पत्नी भी थी. उनका नाम, पति के घायल होने से जुड़ी उनकी फीलिंग, उन सैनिकों के अनुभव का एक विहंगम वर्णंन लेकर मैं लौटा तो सात बज रहे थे. मैंने फ़िर रिक्शे का ही सहारा लिया, पर अब वैसी उतावली या घबराहट नहीं थी. मैंने दफ्तर पंहुचकर इत्मीनान से ख़बर लिखी. ख़बर क्या, वह एक बहुत ही भावपूर्ण ढंग से लिखा गया शब्दचित्र था. दो-तीन ज्यादा घायल सैनिकों से आपबीती के बारे में छोटी-छोटी बातचीत भी थी. उसमें स्टेशन पर घायल वायुसैनिकों से पत्नी और बच्चों के भावुक मिलन को वर्णित करने के लिए गढा हुआ एक छोटा सा बॉक्स भी था. समाचार लिखकर संपादक को देने के बाद मैंने राहत की साँस ली. दूसरे दिन के अख़बार में उस ख़बर ने byline के साथ टॉप बॉक्स के रूप में जगह ले रखी थी. पहली ख़बर, पहली byline , पहला पेज. अगले दिन दफ्तर पहुँचा तो संपादक सहित मेरे विभाग के सीनिअर्स और साथियों ने इतनी ''तथ्यपरक, मार्मिक और मुकम्मिल'' ख़बर के लिए पीठ ठोंकी. मेरे पास खुशी का कारन तो था, पर समय पर स्टेशन न पहुँच पाने का मलाल भी था. बहरहाल, मेरा काम तीन-चार दिन बाद ही बदल दिया गया था. मुझे अब रिपोर्टिंग का काम दे दिया गया था.

4 comments:

रंजन (Ranjan) said...

आपके अनुभव बहुत गहरे.. बहुत सिखने को मिलेगा.

Anonymous said...

गुरुदेव की जय हो।
इसी तरह बांटते रहो ज्ञान। रावतपाड़े से दिल्‍ली तक।
एक शिकायत है आपसे कि ज्ञान तो हम एकल्‍वय की तरह भी ले लेंगे लेकिन जूस वाला थर्मस बहुत याद आता है।

अनुराग अन्वेषी said...

जब यह वर्णन इतना रोचक है, तो रिपोर्टिंग कितनी खूबसूरत होगी। अगर उस रिपोर्टिंग की कोई कॉपी बची रही हो और इस ब्लॉग पर आ जाए तो बहुत खुशी होगी।

Udan Tashtari said...

अच्छा लगा आपको पढ़ना!!