Wednesday, September 17, 2008

नहीं भूलती इमरजेंसी की वह रात

इमरजेंसी लगी हुई थी. प्रेस सेंसरशिप भी लागू थी . रात का करीब एक बजा था. अखबार छ्पना शुरू हो चुका था, पहली लीड सिर्फ़ तीन कॉलम के हेडिंग के साथ छपी हुई थी - सुरक्षा बलों में अनुशासनहीनता बर्दाश्त नहीं होगी : इंदिरा गधी.

ओमप्रकाश लवानिया रात में थे. तब तक शायद वह 6-7 पैग चढ़ा चुके होंगे. लेकिन हमेशा की तरह थे एकदम अलर्ट. फोरमेन ओंकारनाथ ने लवानियाजी को अख़बार की शुरुआती प्रतियाँ लाकर दिखाई. रोको मशीन रोको, ओंकारनाथ काम निपटा चुकने के बाद घर जाने के मूड में थे और उनको दिनभर सम्पादकीय विभाग के त्रुटी निवारण के निर्देशों का पालन करते-करते झुंझलाहट भी आ चुकी होती थी. इस बीच मशीनमेन पूरी स्पीड पर मशीन को ला चुका था.

हड़बड़ी में लवानिया जी ख़ुद ही सीढियों की ओर भागे और गिर पड़े. गिरने की आवाज सुनकर मैं सीढियों की ओर दौड़ा और उन्हें उठाया. लवानिया जी ने जैसे-तैसे मुझे मामले की गंभीरता का एहसास कराया. मैं नीचे मशीन रूम में पंहुचा तो वहां मशीनमेन की जगह उनका हेल्पर मौजूद था. सब इंतजाम ठीकठाक मानकर मशीनमेन साहब खाने (या पीने ? ) गए हुए थे. मैंने हेल्पर को उस शोर में अपनी बात समझाने की कोशिश की तो उसका जवाब था– वैसे तो सब लोग समझ लेंगे कि गधी का मतलब गांधी से ही है, लेकिन आप लोगों को हर बात में मीनमेख निकालनी होती है. अब या तो पीटर (मशीनमैन) के आने तक रुको या फ़िर लवानिया जी से कहलवाओ.

मैं फ़िर दौड़ता ऊपर गया तो 40 किलो के लवानिया जी अभी तक जीने के बीच चांदे पर ही थे, हाँ उन्होंने दीवार का सहारा ले लिया था. दांये घुटने से खून बह रहा था और बायीं पिंडली की मात्र त्वचा से ढकी हुई हड्डी में चोट के कारण काफी तकलीफ थी. मैंने कुछ कहे बिना लवानिया जी को गोद में उठाया और मशीनरूम में पेश कर दिया. उनकी जबरदस्त फटकार के बाद मशीन रोकी गयी, शायद तब तक 7 हज़ार अखबार छप चुका था जिसे रद्दी किया गया और सुधार करके करीब 40 मिनट के बाद दोबारा छपाई शुरू हुई.

प्रिंटिंग मशीन का हेल्पर नहीं जानता था कि इमरजेंसी कि घोषणा होने पर अखबार का सम्पादकीय कालम खाली छोड़ने की बड़ी सख्त प्रतिक्रिया हुई थी. कांग्रेस के प्रमुख नेताओं का एक गुट दिल्ली में सत्ता की धुरी तक संदेश भेज रहा था कि ऐसे संपादक को गिरफ्तार करने का यह सुनहरा अवसर है. 26 जून को ही कलेक्टर ने संपादक को बुलाकर चेतावनी दे दी थी कि भविष्य में "सरकार के विरोध का कोई भी काम न किया जाए, अन्यथा प्रशासन उचित निर्णय लेने के लिए मजबूर होगा". घटना की शिकायत किसी ने नहीं की थी, लेकिन बात छिप भी नहीं सकती थी. संपादक की जानकारी में आने पर अगले दिन प्रूफ़ रीडर की गर्दन नप गयी. पता ये चला कि जनाब के साले साब मिलने आए थे और उनके साथ उस रात कुछ ज्यादा ही चढा ली थी.

7 comments:

Hemant Snehi said...

ब्लॉग की दुनिया में प्रवेश पर हार्दिक स्वागत. अच्छे संस्मरणों के लिए बधाई.
-हेमन्त स्नेही

दिनेशराय द्विवेदी said...

हर्ष जी, आप के इस संस्मरण ने पत्रकारिता जीवन के मेरे दस सालों को पुनः स्मरण करने को विवश कर दिया।

रवि रतलामी said...

दिलचस्प प्रसंग है. अभी विनीत ने जनसत्ता जैसे प्रसिद्ध अखबार की प्रूफ की गलतियों केबारे में भी लिखा था...

vipinkizindagi said...

achchi rachna

रंजन (Ranjan) said...

"आ" की मात्रा का कमाल...

Manish Kumar said...

rochak prasang

Udan Tashtari said...

दिलचस्प प्रसंग !!